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नू न॒ एहि॒ वार्य॒मग्ने॑ गृणा॒न आ भ॑र। ये व॒यं ये च॑ सू॒रयः॑ स्व॒स्ति धाम॑हे॒ सचो॒तैधि॑ पृ॒त्सु नो॑ वृ॒धे ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nū na ehi vāryam agne gṛṇāna ā bhara | ye vayaṁ ye ca sūrayaḥ svasti dhāmahe sacotaidhi pṛtsu no vṛdhe ||

पद पाठ

नु। नः॒। आ। इ॒हि॒। वार्य॑म्। अग्ने॑। गृ॒णा॒नः। आ। भ॒र॒। ये। व॒यम्। ये। च॒। सू॒रयः॑। स्व॒स्ति। धाम॑हे। सचा॑। उ॒त। ए॒धि॒। पृ॒त्ऽसु। नः॒। वृधे ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:16» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:8» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् ! (ये) जो (सूरयः) विद्वान् (ये, च) और जो (वयम्) हम लोग (स्वस्ति) सुख को (धामहे) धारण करते हैं उनसे (सचा) सम्बद्ध आप (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य की (नू) शीघ्र और (गृणानः) विद्वानों के गुणों की स्तुति करते हुए (नः) हम लोगों को (आ, इहि) सब प्रकार से प्राप्त हूजिये (उत) और सुख की (आ, भर) सब प्रकार पुष्टि कीजिये तथा (पृत्सु) संग्रामों में (नः) हम लागों की (वृधे) वृद्धि के लिये (एधि) प्राप्त हूजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्यों के लिये निरन्तर सुख देते हैं, उनके साथ मनुष्य सदा उन्नति करें ॥५॥ इस सूक्त में बिजुली का विषय संग्रामविजय और राज्यैश्वर्य के वर्द्धन का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सोलहवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! ये सूरयो ये च वयं स्वस्ति धामहे तैः सचा त्वं वार्यं नू गृणानो नोऽस्मानेहि। उत स्वस्ति चा भर पृत्सु नो वृध एधि ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नू) सद्यः (नः) अस्मान् (आ) (इहि) समन्तात् प्राप्नुहि (वार्यम्) वर्त्तुमर्हम् (अग्ने) विद्वन् (गृणानः) विद्वद्गुणान् स्तुवन् (आ) (भर) समन्तात् पुष्णीहि (ये) (वयम्) (ये) (च) (सूरयः) (स्वस्ति) सुखम् (धामहे) (सचा) सम्बद्धः (उत) (एधि) (पृत्सु) सङ्ग्रामेषु (नः) अस्माकम् (वृधे) वर्धनाय ॥५॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्येभ्यः सततं सुखं प्रयच्छन्ति तैः सह मनुष्याः सदोन्नतिं कुर्वन्त्विति ॥५॥ अत्र विद्युद्विषयसंग्रामविजयराज्यैश्वर्यवर्द्धनवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षोडशं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे माणसांना सतत सुख देतात त्यांच्या संगतीने माणसांनी सदैव उन्नत व्हावे. ॥ ५ ॥