नू न॒ एहि॒ वार्य॒मग्ने॑ गृणा॒न आ भ॑र। ये व॒यं ये च॑ सू॒रयः॑ स्व॒स्ति धाम॑हे॒ सचो॒तैधि॑ पृ॒त्सु नो॑ वृ॒धे ॥५॥
nū na ehi vāryam agne gṛṇāna ā bhara | ye vayaṁ ye ca sūrayaḥ svasti dhāmahe sacotaidhi pṛtsu no vṛdhe ||
नु। नः॒। आ। इ॒हि॒। वार्य॑म्। अग्ने॑। गृ॒णा॒नः। आ। भ॒र॒। ये। व॒यम्। ये। च॒। सू॒रयः॑। स्व॒स्ति। धाम॑हे। सचा॑। उ॒त। ए॒धि॒। पृ॒त्ऽसु। नः॒। वृधे ॥५॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
हे अग्ने ! ये सूरयो ये च वयं स्वस्ति धामहे तैः सचा त्वं वार्यं नू गृणानो नोऽस्मानेहि। उत स्वस्ति चा भर पृत्सु नो वृध एधि ॥५॥